Friday 28 February 2020

50 संस्कृत सुभाषितानि ,संस्कृत में सुविचार एवं अनमोल वचन

(50) संस्कृत सुभाषितानि ,

संस्कृत में 50 सुविचार एवं अनमोल वचन 

Good thoughts and precious words in sanskrit
65 संस्कृत सुभाषितानी 


दोस्तों संस्कृत भाषा भारत ही नहीं  विश्व की प्राचीनतम भाषा होने के साथ ही सभी भाषाओं की जननी है।Sanskrit sloks with meaning in hindi  संस्कृत भाषा में पग-पग पर विश्व कल्याण और मानवता का पाठ पढ़ाने वाले श्रेष्ठ वाक्यांश समाहित है। व्यक्ति के मार्गदर्शन के लिए तथा सभी पक्षों के विकस के लिए (संस्कृत श्लोक,संस्कृत में सूक्तियां, संस्कृत में सुविचार,सुभाषितानी) आदि कयी ऐसे महान विचार हमारे ग्रंथों से लिये गये है। अत: इसी प्रकार संस्कृत श्लोक ज्ञानवर्धक और शिक्षा प्रद कथनों को इस "संस्कृत सुभाषितानि" में हिन्दी अर्थ, संस्कृत भावार्थ सहित समाहित करने का छोटा सा प्रयास किया गया है।Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं। भारत ने दुनिया को सभी तरह का ज्ञान दिया और आज उस ज्ञान के कारण पश्‍चिम और चीन जगत के लोग अपना जीवनस्तर सुधारने में लगे हैं।Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।gyansadhna.com
आशा है यह संस्कृत श्लोक,संस्कृत में सूक्तियां, संस्कृत में सुविचार,सुभाषितानी आपके लिए ज्ञानवर्धक होगा।और आपके जीवन में इसका प्रभाव अवश्य पढेगा।

Sanskrit sloks with meaning in hindi 


(1)-कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान न धार्मिकः ।
        कथञचित्स्वोदरभराः  किन्न शूकर शावकाः ।।

अर्थात- उस पुत्र का कोई प्रयोजन नहीं है, जो ज्ञानी न हो,या जिसे विद्या का ज्ञान न हो,और ना ही वह धार्मिक प्रवृत्ति हो। सूवर को बहुत तुच्छ माना जाता है तो क्या उसके बच्चे किसी तरह अपना पेट नही भरते है।


(2) अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।
       गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।।

अर्थात- बुद्धिमान  मनुष्य अपने को बुढापा और मृत्यु से रहित समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(3) अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः ।
     सकृद् दुखकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे ।।

अर्थात- या तो बालक उत्पन्न ही न हुआ हो , या उत्पन्न होकर उसी समय मर गया हो,और मूर्ख क्योंकि इनके मरने पर उतना दुख नही होता है। लेकिन अगर मरा भी नही और मूर्ख पैदा हो गया हो तो वह जीवन भर बार-बार दुख देता है।


(4) विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
     पात्रात्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मम् ततः सुखम् ।।

अर्थात- विद्या से विनय ,विनय से योग्यता,योग्यता से धन,धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।


(5) अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
    सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ।।

अर्थात- अनेक संशयो को मिटाने वाला ,भूत एवं भविष्य को तथा अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष के समान दिखानेवाला, शास्त्ररूपी दिव्यचक्षु जिसके पास नहीं है,वह वास्तव में अन्धा है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(6) यन्नवे भाजने लग्नः,संस्कारो नान्यथा भवेत ।
     कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते ।।

अर्थात- जिस कारण मिट्टी के कच्चे पात्र में  किया हुआ रेखा आदि कलात्मक संस्कार उसके पकाये जाने पर कभी मिट नहीं  सकता इसी कारण कोमल बुद्धिवाले बालकों को अनेक कथाओं के बहाने से नीती वचन बताता हूं।


(7) माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
     कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥

अर्थात- माता, पिता और मित्र तीनों ही स्वभावतः ही हमारे हित के लिए सोचते हैं, वे हमारे हित करने के बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। इन तीनों के सिवाय अन्य लोग यदि हमारे हित की सोचते हैं तो वे उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ अपेक्षा भी रखते हैं।


(8) वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
     करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः।।

अर्थात- सदैव प्रसन्न-वदन (हँसमुख), हृदय में दया की भावना रखने वाले, अमृत के समान मीठे वचन बोलने वाले तथा परोपकार में लिप्त रहने वाले व्यक्ति भला किसके लिए वन्दनीय नहीं होगा।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(9) दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं वशः ।
      विद्यायामर्थलाभे च मातुरूच्चार एव सः ।।

अर्थात- जिस पुरष की कीर्ति दान देने में, तपस्या में, वीरता में,विद्योपार्जन में नहीँ फैली वह पुरूष अपनी माता की केवल विष्ठा के समान होता है।


(10) यस्य कस्य प्रसूतोऽपि गुणवान्पूज्यते नरः ।
        धनुर्वशविशुद्धोऽपि निर्गुणः किं करिष्यति ।।

अर्थात- किसी भी वंश में उत्पन्न मनुष्य यदि गुणी है,तो समाज में उसका सम्मान होता है।जैसे श्रेष्ठ बांस  से बने हुए भी गुण रहित धनुष से क्या उपयोग लिया जा सकता है, अर्थात कोई नहीं ।


(11) काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो।
         वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः॥

 अर्थात- कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(12) न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
       व्यये कृते वर्धत व नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम॥

अर्थात- न तो इसे चोर चुरा सकता है, न ही राजा इसे ले सकता है, न ही भाई इसका बँटवारा कर सकता है और न ही इसका कंधे पर बोझ होता है; इसे खर्च करने पर सदा इसकी वृद्धि होती है, ऐसा विद्याधन सभी धनों में प्रधान है।



(13) देशवंशजनैकोऽपि कायवाक्चेतसां चयै ।
        येन नोपकृतः पुंसा तस्य जन्म निरर्थकम् ।।

अर्थात-जिस किसी पुरूष ने शरीर ,वाणी और मन इन तीनों द्वारा अथवा इसमें से किसी एक के द्वारा देश का अथवा अपने वंश का एक भी उपकार यदि न किया तो ऐसे अनुपकारी पुरूष का जन्म लेना ही व्यर्थ है।


(14) पुण्यतीर्थे कृतं येन तपः क्वाप्यतिदुष्करम् ।
        तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः ।।

अर्थात- जिस पुरूष ने किसी पुण्यतीर्थ में जाकर अतिकठिन तपस्या की हो तो उसके प्रभाव से उसका पुत्र आज्ञाकारी, धनधान्यादियुक्त ,धर्मात्मा एवं  इद्वान होता है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(15)आहारनिद्राभयसन्ततित्वं सामान्यमेतत्पशुभीर्नराणाम् ।
      ज्ञानं हि तेषामधिकं विशिष्टं ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ।।

अर्थात- मनुष्य में और पशुओं में आहार निद्रा ,भय और सन्ततित्व ये चाररों गुण समान होते है,किन्तु एक ज्ञान ही ऐसा गुण है जो मनुष्य में विशेष रूप से होता है,इसलिए ज्ञान से रहित मनुष्य पशु के समान हुआ करते।


(16) विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च ।
      व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ।।

 अर्थात- ज्ञान यात्रा में,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(17) सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।।

 अर्थात-अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है ; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।


(18) यौवनं धन सम्पत्तिः प्रभुत्वमअविवेकिता  ।
       एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।

अर्थात- जवानी ,द्रव्यविभव ,स्वामित्व और विचार शून्यता इन चारों में स्वतन्त्र एक-एक भी अनर्थ का कारण हो जाता है,जहां चारों एक साथ हो वहां की बात ही क्या है, अर्थात वहां तो अनर्थ होगा ही ।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(19) दैवे पुरूषकारे चा स्थितमस्य बलाबलम् ।
        दैवं पुरूषकारेण दुर्लभं ह्युपहन्यते ।।

अर्थात- भाग्य और पुरुषार्थ में इसका बलाबल विद्यामान है,पुरुषकार के द्वारा दुर्बल भाग्य पराजित होता है।

(20) समाश्वासनवागेका न दैवं परमार्थतः ।
       मूर्खाणां सम्प्रदायेऽस्य परिपूजनम् ।।

भावार्थ- यह तो केवल आश्वासन देने के लिए कथन मात्र है,कि भाग्य ही सब कुछ है, वस्तुतः भाग्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। मूर्खों के समाज में ही केवल एक मात्र भाग्य की पूजा होती है ।

(21) उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि मनोरथैः। 
        नहि सुप्तस्य सिंह प्रविशन्ति मुखै मृगाः ।।

अर्थात- केवल मनोरथ से कार्य सफल नहीं होते है,प्रत्युत उद्योग से ही सिद्ध होते है,जैसे सोये हुए सिंह के मुंह में मृग स्वयं नहीं चले जाते उसको भी अन्वेषण करना ही पढता है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(22) यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
तथा पुरूषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।

अर्थात- जिस प्रकार एक पहिए से रथ नहीं चलता,उसी प्रकार विना पुरूषार्थ किए भाग्य नहीं फलता ।

(23) पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्दैवमिति कथ्यते ।
      तस्मात्पुरूषकारेण यत्नं कुर्यादतन्द्रितः ।।

अर्थात- पूर्वजन्म के किये हुये कर्म ही भाग्य कहलाते है।इसलिए पुरूष को आलस्य रहित होकर उद्योग करना चाहिए ।

Sanskrit sloks with meaning in hindi

(24) न गणस्याग्रतो गच्छेत्सिद्धे कार्ये समं फलम ।
         यदि कार्यविपत्तिः स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते ।।

अर्थात- किसी भी समूह का अग्रणी नहीं बनना चाहिए, क्योंकि कार्य सफल हो जाने पर सभी को बराबर लाभ होता है,और यदि कार्य बिगडता है तो अग्रणी ही मारा जाता है।


(25) सम्पदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् ।
       तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं  विरलं ।।

अर्थात-  जिसको सम्पति में न प्रसन्नता होती है, न विपत्ति में दुख होता है,और जो युद्ध में भी धैर्य को नही छोडता है। ऐसे त्रिभुवन के तिलक के समान विरले ही पुत्र को माता जन्म देती है।


(26) षडदोषाः पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
        निद्रा-तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।

अर्थात- इस संसार में अपना कल्याण चाहने  वाले पुरूष को निद्रा, ऊंघना, भय, क्रोध,आलस्य और छोटे से कार्य में बहुत समय लगाना इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए।

Sanskrit sloks with meaning in hindi


(27) रोग-शोक-परीताप-बन्धन-व्यसनानि च ।
       आत्मापराधवृक्षाणां फलान्येतानि देहिनाम ।।

अर्थात- रोग,शोक,बन्धन,और अन्य प्रकार की विपत्तियां ये प्राणियों द्वारा किये गये पापापराधरूपी वृक्षों के फल है।


(28) धनानि जीवितञ्चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत ।
         सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति ।।

अर्थात- विद्वान को चाहिए कि परोपकार के लिए ही अपने धन और प्राणोंश का त्याग करे, धन और जीवन का विनाश जब निश्चित है तब परोपकार आदि अच्छे काम में ही उनका त्याग करना श्रेयस्कार हे।


(29) आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः ।
         उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साजरामरा ।।

अर्थात- वेदविद आचार्य बालक की जिस जाती को उपनयन आदि संस्कार यथाविधि गायत्री के उपदेश द्वारा बनाता है,संस्कार से नवीन जन्म देता है,वह जाति सत्य ,जरारहित और अमर है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi


(30) ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः ।
        ब्रह्रमवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः ।।

अर्थात- ब्राह्म -दैव-आर्ष और प्रजापत्य इन चारों प्रकार के विवाहों के होने पर ही ब्रह्मतेजस्वी और शिष्ट लोगों के प्रिय पुत्र हुआ करते है।



(31) हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् ।
        समैश्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ।।

अर्थात- हे पुत्र नीच व्यक्तियों की संगति करने से बुद्धि क्षीण होती है,अपनी बराबरी के लोगों की संगति से मति समान ही रहती है,एवं विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्टता आदि गुणों को प्राप्त होती है ।


(32) रूपसत्वगुणोपेता धनवन्तो बहुश्रुताः ।
        पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः ।।

अर्थात- सुन्दर आकृति वाले सत्व और दयादाक्षिण्यादि गुणों से युक्त,धनी,अनेक शास्त्र के अभ्यासी, इच्छानुसार विविध भोगों को भोगने वाले धार्मिक ऐसे पुत्र होते है,और वे सौ वर्ष तक जीवित रहते है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi


(33) कंकणस्य तु लोभेन मग्नः पंकेशसुदुस्तरे ।
        वृद्धव्याघ्रेण सम्प्राप्तः पथिकः स मृतो यथा ।।

अर्थात- जिस प्रकार सोने के कंगन के लोभ से वह वृद्ध पथिक गहरे कीचड में फंसकर मर जाता है,और बूढा बाघ उसे खा लेता है।



(34) न संशयमनारूह्य नरो भद्राणि पश्यति ।
         संशयं पुनरारूह्य यदि जीवति पश्यति ।।

अर्थात- मनुष्य अपने को खतरे में डाले बिना विशिष्ट लाभ नहीं प्राप्त कर सकता, यदि खतरे से बच गया तो उस लाभ का सुख वह भोगता ही है ।



(35) ईर्ष्या घृणी त्वसंतुष्टः क्रोधनो नित्यशंकितः ।
         परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः ।।

अर्थात- ईर्ष्या करने वाला,घृणा करने वाला,असन्तोषी, क्रोधी,प्रत्येक विषय में शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्य के सहारे जीने वाला अर्थात पराधीन ये छः प्रकार के मनुष्य सर्वदा दुखी रहते है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi


(36) स हि गगनविहारी कल्मषध्वंसकारी ,
         दश्शतकरधारी ज्योतिषां मध्यचापि विधुरपि ।       विधियोगात् ग्रस्यते राहुणाऽसौ ,
         लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः ।।

अर्थात- आकाश में विहरण करने वाला, अन्धकार को मिटाने वाला, हजार किरणों वाला, एवं नक्षत्रों के मध्य विचरण करने वाला, वह प्रसिद्ध चन्द्रमा भी भाग्यवशातशराहु द्वारा ग्रसा जाता है, मस्तक में यिनी भाग्य में लिखे हुए लेख को मिटाने में कौन समर्थ हो सकता है?कोई भी नहीं ।



 (37) न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं, न चापि वेदाध्यनं दुरात्मनः ।
         स्वभाव एवान्न तथातिरिच्यते, यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ।।

अर्थात- दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव परिवर्तन में धर्मशास्त्र का पढना अथवा वेदाध्ययन कारण नहीं हो सकता ,यहां स्वभाव की प्रधानता उसी प्रकार रहती है,जैसे कडुए कसैले आदि अनेक रसयुक्त रूखे घासों के खाने पर भी गाय का दूध स्वभावतः मधुर ही हुआ करता है।

Sanskrit sloks with meaning in hindi


(38),सहसा विद्धीत न क्रियतामविवेकः परमापदां पदम् ।
        वृणुते हि विमृश्यकारिणंशगुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।।

अर्थात- अचानक कोई काम नहीं कर बैठना चाहिए, विचार किए बिना,किया  हुआ काम आपत्ति का कारण बनता है। गुणों पर मुग्ध होने  वाली सम्पति विचारपूर्वक काम करने वाले को स्वयं जयमाला पहनाती है।


(39) शंकाभिः सर्वमाक्रान्तमन्नं पानं च भूतले ।
         प्रवृतिः कुत्र कर्तव्या जीवितव्यं कथं नु वा ।।

अर्थात- पृथ्वी में भोज्य,पेय पदार्थ शंकाओं से व्याप्त है। ऐसी स्थिति में किसे ग्रहण किया जाए, किसे ग्रहण न किया जाए। यदि सभी पदार्थ छोड दिये जाए तो जीवित कैसे रहेंगे ।



(40) लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
        लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।

अर्थात- लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है,लोभ से विषय भोग आदि कामों में प्रवृति होती है। लोभ से ही मोह और कर्तव्याकर्तव्यरूप बुद्धि का नाश होता है,इसलिए लोभ ही सब पापों का कारण है।

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41- यानि कानी च मित्राणि कर्तव्यानि शतानि च ।
        पश्य मूषिकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ।।

अर्थात- छोटे हो या बडे, निर्बल हो या या सबल, अधिक से अधिक संख्या में मित्र बना लेना चाहिए।  क्योंकि न जाने किसके द्वारा किस समय कैसा काम निकल जाये।


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 42- तावद भयस्य भेतव्यं यावद् भयमागतम् ।
      आगतं तु भयं वीक्ष्य नरः कुर्याद्यथोचितम् ।।

अर्थात- भय का कारण जब तक उपस्थितशनहीं होता तभी तक उससे डरना चाहिए किन्तु भय को उपस्थित हुआ देखकर मनुष्य जैसा उचितशहो वैसा उसके प्रतिकार का उपायशकरना चाहिए।


43- अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते ।
       छेत्तुः पार्श्वगतां छायां नोप संहरते द्रुमः ।।

अर्थात- घर में आये हुए शत्रु का भी उचित सत्कार करना चाहिए।  देखो- वृक्ष भी काटने वाले के ऊपर की छाया नहींशहटाता अर्थात उसे काटते समय भी छाया देता है।

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44- सर्वहिंसानिवृत्ता ये नराः सर्वसहाश्च ये ।
      सर्वस्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ।।

अर्थात- जो मनुष्य सब प्रकार की हिंसा से निवृत है,जो सब सहन करते है, सभी के आश्रयभूत हैं,वे मनुष्य स्वर्ग में वास करता है।


45- उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः ।
       श्रृगालेन हतो हस्ती गच्छता पंक्ङवर्त्मना ।।

अर्थात- जो कार्य उपायों द्वारा हो सकता है । वह कार्य शक्ति द्वारा नहीं हो सकता ।जैसे- सियार कीचड़ के मार्ग से चलते हुए एक हाथी को मार डाला ।


46- एकस्य दुखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
      तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभन्ति ।।

अर्थात- समुद्र के पार खी तरह जब तक एक दुख का अन्त होने नहीं पाया कि दूसरा बीच में ही उपस्थित हो जाता है। ठीक ही कहा है कि विपत्ति आने पर उसके साथ-साथ अनेकों विपत्तियां आ पढती है।

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47- यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
       ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।

अर्थात- जो मनुष्य निश्चित वस्तु को त्यागकर अनिश्चित वस्तु के पीछे दौडता है,उसकी निश्चित वस्तु नष्ट हो जाती है और अनिश्चित वस्तु तो पहले ही नष्ट है।


48- अवश्यमेव  भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
        नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।

अर्थात- किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पढता है,करोड कल्प बीत जाने पर भी बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता है।


49- अवसश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।
        प्रतिकुर्युर्नं किं नूनं नलरामयुधिष्ठिराः ।।

अर्थात- और भी  अवश्य होने वाले सुखदुखादि को रोकने का यदि कोई उपाय होता तो नल,राम और युधिष्ठिर जैसे चक्रवर्ती राजा लोग उस उपाय को क्यों न करते ।

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50- अस्ति चेदिश्वरः कश्चित फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।
        कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभर्हि सः ।।

अर्थात- प्राणियोआको उनके लिए काम का शुभ अथवा अशुभ फल देने वाला कर्मातिरिक्त यदि कोई ईश्वर मान भी लिया जाए तो वह भी फल देने के समय कर्म करने वाले व्यक्ति की ही अपेक्षा रखता है, जो कर्म नहीं करता उसको फल नहीं देता इसलिए कर्म करना परमावश्यक है।
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