Saturday 18 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य, उपदेश, अर्थ व सार // The significance, precept, meaning and essence of the fourth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य, उपदेश, अर्थ व सार
The significance, precept, meaning and essence of the fourth chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय ,द्वितीय अध्याय , तृृतीय 
अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।


श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य -
The greatness of the fourth chapter of Srimad Bhagavad Gita
श्रीभगवान् कहते हैं - 
प्रिये ! अब मैं चौथे अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ । सुनो , भागीरथीके तटपर वाराणसी ( बनारस ) नामकी एक पुरी है । वहाँ विश्वनाथजीके मन्दिरमें भरत नामके एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे , जो प्रतिदिन आत्मचिन्तनमें तत्पर हो आदरपूर्वक गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ किया करते थे । उसके अभ्याससे उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था । वे शीत - उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते थे । एक समयकी बात है , वे तपोधन नगरकी सीमामें स्थित देवताओंका दर्शन करनेकी इच्छासे भ्रमण करते हुए नगरसे बाहर निकल गये । वहाँ बेरके दो वृक्ष थे । उन्हींकी जड़में वे विश्राम करने लगे । एक वृक्षकी जड़में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूलमें उनका एक पैर टिका हुआ था । थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच ही छः दिनोंके भीतर सूख गये । उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं । तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणोंके पवित्र गृहमें दो कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुए ।

वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्षकी हो गयीं , तब एक दिन उन्होंने दूर देशोंसे घूमकर आते हुए भरतमुनिको देखा । उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणोंमें पड़ गयीं और मीठी वाणीमें बोलीं - ' मुने ! आपकी ही कृपासे हम दोनोंका उद्धार हुआ है । हमने बेरकी योनि त्यागकर मानव - शरीर प्राप्त किया है । ' उनके इस प्रकार कहनेपर मुनिको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने पूछा - ' पुत्रियो ! मैंने कब और किस साधनसे तुम्हें मुक्त किया था ? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेरके वृक्ष होनेमें क्या कारण था ? क्योंकि इस विषयमें मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है ।

तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जानेका कारण बतलाती हुई बोलीं- " मुने ! गोदावरी नदीके तटपर छिनपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है , जो मनुष्योंको पुण्य प्रदान करनेवाला है । वह पावनताकी चरम सीमापर पहुँचा हुआ है । उस तीर्थमें सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे । वे ग्रीष्म ऋतुमें प्रज्वलित अग्नियोंके बीचमें बैठते थे , वर्षाकालमें जलकी धाराओंसे उनके मस्तकके बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़ेके समय जलमें निवास करनेके कारण उनके शरीरमें हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे ।

वे बाहर - भीतरसे सदा शुद्ध रहते , समयपर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मामें ही रमण करते थे । वे अपनी विद्वत्ताके द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे , उसे सुननेके लिये साक्षात् ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे । ब्रह्माजीके साथ उनका कोच नहीं रह गया था , अतः उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मग्न रहते थे । परमात्माके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहनेके कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी । सत्यतपाको जीवन्मुक्तके समान मानकर इन्द्रको अपने समृद्धिशाली पदके सम्बन्धमें कुछ भय हुआ , तब उन्होंने उनकी तपस्यामें सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये । अप्सराओंके समुदायसे हम दोनोंको बुलाकर इन्द्रने इस प्रकार आदेश दिया - ' तुम दोनों उस तपस्वीकी तपस्यामें विघ्न डालो , जो मुझे इन्द्रपदसे हटाकर स्वयं स्वर्गका राज्य भोगना चाहता है ।
इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामनेसे चलकर गोदावरीके तीरपर , जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे , आयीं । वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वरसे बजते हुए मृदङ्ग तथा मधुर वेणुनादके साथ हम दोनोंने अन्य अप्सराओंसहित मधुर स्वरमें गाना आरम्भ किया । इतना ही नहीं , उन योगी महात्माको वशमें करनेके लिये हमलोग स्वर , ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं । बीच - बीचमें जरा - जरा सा अंचल खिसकनेपर उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी । हम दोनोंकी उन्यत गति कामभावका उद्दीपन करनेवाली थी , किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्माके मनमें क्रोधका संचार कर दिया । तब उन्होंने हाथसे जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दिया - ' अरी ! तुम दोनों गङ्गाजीके तटपर बेरके वृक्ष हो जाओ । ' यह सुनकर हमलोगोंने बड़ी विनयके साथ कहा - ' महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं , अत : हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है , उसे आप क्षमा करें । ' यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न कर लिया । तब उन पवित्र चित्तवाले मुनिने हमारे शापोद्धारकी अवधि निश्चित करते हुए कहा - ' भरतमुनिके आनेतक ही तुमपर यह शाप लागू होगा । उसके बाद तुमलोगोंका मर्त्यलोकमें जन्म होगा और पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी । '

' मुने ! जिस समय हम दोनों बेर - वृक्षके रूपमें खड़ी थीं , उस समय आपने हमारे समीप आकर गीताके चौथे अध्यायका जप करते हुए हमारा उद्धार किया था , अत : हम आपको प्रणाम करती हैं । आपने केवल शापसे ही नहीं , इस भयानक संसारसे भी गीताके चतुर्थ अध्यायके पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया ।

श्रीभगवान् कहते हैं - 
उन दोनोंके इस प्रकार कहनेपर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे , वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ करने लगीं , जिससे उनका उद्धार हो गया ।


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