पञ्चमहायज्ञ कौन से होते है?
पञ्चमहायज्ञ है मुक्ति के द्वार
What are Panchamahayagyas?
Panchamahagya is the door to liberation
दोस्तों हमारे धार्मिक ग्रन्थों व शास्त्रों में यज्ञ-अनुष्ठानों का महत्व रहा है,और पंचमहायज्ञों का वैदिक यज्ञ परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान है । इसे प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य बनाया गया है । ए यज्ञ हमारे आंतरिक मन को स्थिरता देते है, मनुस्मृति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन विधिपूर्वक पंचमहायज्ञ का सम्पादन करना चाहिए । जिससे उसके सभी कर्म सफल हो जाते है,उसके द्वारा किए गये पाप कर्म भी पुण्य में बदलकर उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
पंच महायज्ञों का महत्व
Importance of Panch Mahayagya
अक्सर यह देखा गया है कि मनुष्य के पास पर्याप्त धन-धान्य होने पर भी अधिकांश परिवार दु:खी और असाध्य रोगों से ग्रस्त रहते हैं,वे सभी इस संसार के कष्टों से घिरे रहते है, क्योंकि उन परिवारों में विधि विधान से पंच महायज्ञ नहीं होते। मानव जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। इन चारों की प्राप्ति तभी संभव है, जब वैदिक विधान से पंच महायज्ञों को नित्य किया जाये। पंचमहायज्ञ का उल्लेख 'मनुस्मृति' में मिलने पर भी उसका मूल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण हैं। इसीलिये ये वेदोक्त है। और यही हमारे धर्म का सार भी है और यही हमारी वास्तविकता है।ये पंचमहायज्ञ इस प्रकार से हैं
ब्रह्मयज्ञ --
इसका अभिप्राय स्वाध्याय या वैदिक मंत्रों के अध्ययन - अध्यापन से है ; जिसमें वेद - वेदांग , इतिहास , पुराण आदि भी समाहित है । इसे ज्ञान यज्ञ भी कहा जाता है ।
पितृयज्ञ -
पितरों की समृद्धि हेतु किया गया तर्पण ही ' पितृयज्ञ ' है । इसमें परलोकवासी पितरों को प्रसन्न कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है । इसलिए प्रत्येक गृहस्थ को तिलादिक अन्नों से , या जल से , दूध से और फलों से पितरों को प्रतिदिन संतुष्ट करते हुए श्राद्धतर्पण करना चाहिए । अधिक सम्भव न हो तो कम - से - कम एक ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिए । विद्वानों ने पितरों के मालिक श्राद्ध को ही ' अन्वाहार्य ' कहा है । श्राद्ध तर्पण के समय " ॐ पितृभ्यः स्वधा " का मंत्रोच्चारण करना चाहिए ।
देव यज्ञ -
देवों के लिए किया गया हवन आदि कृत्य ही ' देवयज्ञ ' है । इस देवकर्म को करता हुआ द्विज इस चराचर जगत् को धारण करता है । विधिपूर्वक अग्नि में छोड़ी हुई आहुति . सूर्य को प्राप्त होती है । सूर्य से वृष्टि ' तथा ' वृष्टि ' से ' अन्न ' एवं अन्न से प्रजाएँ उत्पन्न होती है और जीवन धारण करती है ।
भूतयज्ञ -
विभिन्न प्राणियों की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ ही ' भूतयज्ञ ' कहलाता है । इसे ' बलिवैश्वदेव ' भी कहा जाता है । प्रतिदिन गार्हस्थ्य अग्नि में पकाए गए वैश्वदेव के लिए अन्न का विधिपूर्वक हवन करना चाहिए । प्रथमतः अग्नि के उद्देश्य से , तत्पश्चात् सोम के उद्देश्य से , पुन : सम्मिलित रूप से अग्नि और सोम के उद्देश्य से , फिर धन्वन्तरि के उद्देश्य से , फिर क्रमशः कुहू , अनुमति , प्रजापति द्यावापृथ्वी के उद्देश्य से तथा अन्त में स्विष्टकृत के उद्देश्य से हवन करना चाहिए । इस तरह समुचित रूप से हवन के पश्चात् पुरुषों सहित इन्द्र , यम , वरुण , सोम आदि के पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणक्रम से बाल अर्पित करना चाहिए । इस तरह का कृत्य करने वाला पुरुष प्रकाशमय सर्वोत्तम स्थान को प्राप्त करता है ।
नृयज्ञ (अतिथि यज्ञ) - इसका तात्पर्य ब्राह्मणों , अतिथियों तथा भिक्षुकों का भोजन आदि द्वारा सत्कार करने से है । अतः घर पर आए हुए अतिथि हेतु आसन , पैर धोने के लिए जल तथा भोजन के लिए स्वादिष्ट अन्न से संतुष्ट करना चाहिए । अतिथि का सत्कार न करने वाला व्यक्ति अपने समस्त पुण्यों को खो बैठता है । अतिथि सत्कार के परिप्रेक्ष्य में यह ध्यातव्य है कि ब्राह्मण के घर आए हुए क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र मित्र , बान्धव एवं गुरु अतिथि नहीं समझे जाते हैं ।
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