Sunday 26 April 2020

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी का जीवन चरित्र, जीवन परिचय, एवं श्रीराम के अनमोल वचन( रामनवमी ) Maryada Purushottam Shri Ram's life character,

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी का जीवन चरित्र, जीवन परिचय, एवं श्रीराम के अनमोल वचन( रामनवमी )
Maryada Purushottam Shri Ram's life character, life introduction, and precious words of Shriram nwmi
gyansadhna.com
Shriram nawami

आपको मेरे इस ब्लॉग पर Motivational QuotesBest Shayari, WhatsApp Status in Hindi के साथ-साथ और भी कई प्रकार के Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्रगायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि कई gyansadhna.com 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
जी के जीवन से तो पूरा विश्व प्रभावित है, उनके पराक्रम और दया भाव, प्रेम की कोई सीमा नही है। श्रीराम विष्णु के अवतार हैं, वे आदिपुरुष हैं, जो मानव मात्र की भलाई के लिए मानवीय रूप में इस धरा पर अवतरित हुए। मानव अस्तित्व की कठिनाइयों तथा कष्टों का उन्होंने स्वयं वरण किया ताकि सामाजिक व नैतिक मूल्यों का संरक्षण किया जा सके तथा दुष्टों को दंड दिया जा सके। रामावतार भगवान विष्णु के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवतारों में सर्वोपरि है। राम जी के आदर्श हमारे जीवन को नयी दिशा प्रदान करता है।

 गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार श्रीराम नाम के दो अक्षरों में 'रा' तथा 'म' ताली की आवाज की तरह हैं, जो संदेह के पंछियों को हमसे दूर ले जाती हैं। ये हमें देवत्व शक्ति के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत करते हैं। इस प्रकार वेदांत वैद्य जिस अनंत सच्चिदानंद तत्व में योगिवृंद रमण करते हैं उसी को परम ब्रह्म श्रीराम कहते हैं, ऐसा ना जिसकी महिमा से समन्दर पर पत्थर तैरने लगते है।

श्रीराम जी का जीवन परिचय
Biography of Shriram
श्रीराम भारतीय काल गणना के अनुसार प्रत्येक मन्वन्तर में चार युग होते हैं - सत्य , त्रेता , द्वापर एवं कलि । वर्तमान मन्वन्तर का नाम है वैवस्वत मन्वन्तर । वैवस्वत मन्वन्तर के त्रेता युग में कौशल राज्य के अधिपति राजा दशरथ एवं महारानी कौशल्या की संतान थे श्रीराम । उनका जन्म चैत्र मास की शक्ल नवमी के दिन , मध्याह्न ( उस समय घड़ियाँ नहीं थीं ) सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या नामक नगरी में हआ था । उनके पूर्वज सूर्यवंशी क्षत्रिय थे ।

उनके प्रपितामह इक्ष्वाकु ने चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना की थी । इसलिए उनको इक्ष्वाकु वंशीय भी कहा जाता था । राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं - कौशल्या , सुमित्रा और कैकेयी । इन तीन रानियों से महाराजा दशरथ को चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी - श्रीराम , भरत , लक्ष्मण और शत्रुघ्न । श्रीराम इनमें सबसे बड़े थे ।

श्रीराम की माता कौशल्या दक्षिण कौशल अर्थात् वर्तमान छत्तीसगढ़ की थीं । श्रीराम बचपन से ही वीर , धीर एवं शान्त स्वभाव के थे । उन दिनों समाज में दष्टों का आतंक बढ़ रहा था । ये दुष्ट व्यक्ति ही राक्षस कहलाते थे । ये राक्षस समाज के निरीह लोगों एवं वनों में आश्रम बनाकर ज्ञान - दान करने वाले ऋषि - मुनियों पर तरह - तरह के अत्याचार कर , उन्हें प्रताड़ित करते रहते थे । इन्हीं अत्याचारी राक्षसों से संघर्ष हेतु , समाज को नेतृत्व प्रदान करने वाले महानायक की आवश्यकता थी । ऋषियों में अग्रगण्य महर्षि विश्वामित्र को श्रीराम में वे सब गुण दिखाई दिए जो रावण जैसे महाराक्षस के अत्याचारी शासन से जनता को मुक्ति दिला सकने वाले किसी महानायक में आवश्यक होते हैं । अतएव श्रीराम को शस्त्र एवं शास्त्र की समुचित दीक्षा देने के लिए महर्षि विश्वामित्र इन्हें महाराजा दशरथ से माँग कर , अपने साथ ले गए । वहाँ श्रीराम ने लघु भ्राता लक्ष्मण के साथ कुख्यात राक्षसी ताड़का , सुबाहु एवं उनके हजारों राक्षस साथियों के साथ युद्ध कर उन्हें पराजित किया ।

श्रीराम का विवाह मिथिला के राजा श्री जनक की पुत्री सीता जी के साथ सम्पन्न हुआ । लेकिन विवाह के उपरान्त वे कुछ दिन विश्राम भी नहीं कर पाये थे कि विमाता कैकेयी एवं कुटिल दासी मन्थरा के षड्यंत्र के कारण उन्हें चौदह वर्ष के लिए वनवास में जाना पड़ा । पर उन्होंने विमाता की इस कठोर आज्ञा को सहर्ष शिराधार्य करते हुए कहा--
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेय मपि चार्णवे ।।
वाल्मीकि रामायण २ / १८ / २८ - २९

इसका अर्थ-- मैं महाराज के कहने से आग मे भी कूद सकता हूँ । तीव्र विष का पान कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ ।

वनवास की चौदह वर्ष की अवधि में भी उन्हें पग - पग पद अनेक कष्टों और बाधाओं का सामना करना पड़ा पर वे किंचित मात्र भी सत्य और धर्म के पथ से , विचलित न हए । समाज को त्रास देने वाले असुरों और राक्षसों का संहार करते हुए , सन्तों , साधुओं और समाज कल्याण के कार्य में लगे हुए ऋषि - - मुनियों को अभय दान देते हुए , दीन - हीन वानर एवं ऋक्ष नामधारी जातियों में आत्मविश्वास का संचार करते हुए , उनको एकता के सत्र में पिरोते हुए वे निरन्तर छोटे भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ , दक्षिणपथ पर आगे बढ़ते चले गए ।

पर उनके ऊपर आने वाली विपदाएँ भी निरन्तर बढ़ती चली गई । यहाँ तक कि लंकाधिपति राक्षस - राज रावण ने छल से सीता जी का भी हरण कर लिया । सीता की रक्षा करते हुए पक्षी राज जटायु का प्राणान्त हुआ । रावण पुत्र मेघनाद से युद्ध करते हुए प्रिय अनुज लक्ष्मण मूर्छित होकर मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हुए । पर श्रीराम ने साहस और धैर्य का परित्याग नहीं किया । अंतत : उन्होंने अपराजेय रावण को पराजित कर , राम राज्य की स्थापना कर अपने महान व्यक्तित्व द्वारा युग , युगान्तर के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम के महान आदर्श की स्थापना की ।

श्रीराम सद्गुणों के सागर थे । सत्य , दया , क्षमा , वीरता , विनम्रता , मातृ - पितृ भक्ति , शरणागत वत्सलता आदि अनेक सद्गुणों का पूर्ण विकास उनके व्यक्तित्व में हुआ था ।

विमाता के आदेश पर ही उन्होंने क्षणभर में युवराज का पद त्यागकर , कण्टकाकीर्ण वनवास को अंगीकार किया । उनका मातृ - प्रेम भी अतुलनीय था । जिस भाई भरत की माता के कारण उन्हें यह कष्ट झेलना पड़ा , उनके प्रति भी उनका असीम अनुराग था ।

वे लक्ष्मण से कहते हैं---
यद् विना भरतं त्वां च , शत्रुघ्नं वापि मानद ।
भवेन्यम सुखं किंचिद , भस्य तत् कुरुतां शिखी । ।

अर्थात-- भरत , तुम और शत्रुघ्न को छोड़कर यदि मुझे कोई भी सुख होता हो , तो उसमें आग लग जाए ।

श्रीराम का मित्र प्रेम भी अत्यन्त स्तुत्य और अनुकरणीय है । सुग्रीव , विभीषण एवं हनुमान आदि मित्रों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वे लंका विजय के उपरान्त राज्यारोहण के समय कहते हैं -

 सुहदो में भवन्तश्च , शरीरं भ्रातरस्तथा ।
अर्थात-- हे वनवासी वानरो , आप लोग मेरे मित्र , भाई तथा शरीर हैं । आप लोगों ने मुझे संकट से उबारा है । इसी प्रकार राम ने भील वृद्धा शबरी के झूठे बेरों को ग्रहण करके तथा पक्षीराज जटायु का अग्नि संस्कार , अपने हाथों करके सामाजिक समरसता एवं दीन वत्सलता का आदर्श प्रस्तुत किया । हनुमान तो उनके सबसे प्रिय थे ।
उनके प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं--- भदङ्गे जीर्णतां यातु यत्वयोपकृत कपे ।
नरः प्रत्युपकाराणमापत्स्वायाति पात्राताम् ।

हनुमान ! तुम्हारे एक - एक उपकार के बदले में मैं अपने प्राण दे , , तो भी इस विषय में शेष उपकारों के लिए मैं तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा । श्रीराम महापराक्रमी होते हुए भी विनय एवं शील से सम्पन्न थे । उनकी विनम्रता ने ही परशुराम के क्रोध को भी जीत लिया था ।

मंथरा जैसी विकृत मानसिकता वाली कुटिल दासी को भी क्षमा कर देने वाले क्षमासागर , आजीवन एक पत्नीव्रत का पालन करने वाले परम संयमी , लोककल्याण के लिए जीवन समर्पित कर देने वाले श्रीराम के महान गुणों की जितनी भी चर्चा की जाए उतनी कम है । लोक - नायकत्व के इस महान आदर्श पुरुष को भगवान के रूप में सुसज्जित कर भारतीय समाज ने उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन ही किया है ।

निम्नांकित श्लोक में उनका जीवन वृत्तान्त इस प्रकार है--
आदौ राम तपोवनादि गमनं , हत्वा मृगं कांचनम् ,
वैदेही हरणं जटायु मरणं , सुग्रीव संभाषणम् ।
बाली निग्रहणम् समुद्र तरणं , लंकापुरी दाहनम् ,
पश्चात् रावण , कुम्भकरणादि हननं , ऐतद्धि रामायणम् ।।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अन्य सम्बन्धित लेख साहित्य---

0 comments: