Monday 11 May 2020

हिन्दी साहित्य (भाग-21) हिन्दी गद्य साहित्य का विकास ,Development of Hindi prose literature

हिन्दी साहित्य (भाग-21) 
हिन्दी गद्य साहित्य का विकास 
Hindi Literature (Part-21)
Development of Hindi prose literature

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गद्य साहित्य का विकासक्रम--

गद्य की प्रचुरता आधुनिक हिंदी - साहित्य की महती विशेषता है और कदाचित् इसीलिए हिंदी का आधुनिक काल गद्य - युग कहलाता है ।

आधुनिक काल में जिस मात्रा में गद्य साहित्य निर्मित हुआ है उतना पद्य में नहीं । सर्वसाधारण के लिए लिखे गये साहित्य का जन - साधारण के विचार - विनिमय की भाषा - गद्य में लिखा जाना स्वाभाविक भी था । आज का युग विज्ञान और बुद्धि का है । वैज्ञानिक आविष्कारों - प्रेस आदि के बाहुल्य के कारण गद्य के माध्यम से जन - सामान्य तथा विचारों का पहुँचना शुरू हो गया है । आज कल्पना और भावुकता का स्थान बुद्धि और तर्क ने ले लिया है । परिमाणतः गद्य का अधिकाधिक प्रचार हुआ । आधुनिक युग से पूर्व गद्य लिखने की परिपाटी का प्रचलन नहीं था , किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि इस युग से पूर्व हमारे देश में गद्य का अभाव था । सच तो यह है कि गद्य का अपेक्षित प्रखर तब संभव है , जबकि युग समृद्ध और सामंजस्यपूर्ण हो और उसमें पूरा - पूरा सांस्कृतिक जागरण तथा अभ्युत्थान हो चुका हो ।

भारतीय इतिहास के मध्य युग में हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की एकता छिन्न - भिन्न हो चुकी थी । इसके अतिरिक्त जिस समय आधुनिक भारतीय भाषाएँ अपभ्रंशों से विकसित हो रही थीं उस समय साहित्य - निर्माण की परंपरा पद्य में प्रचलित थी । यह कारण है कि हिंदी साहित्य 4 गद्य का प्रचार अपेक्षाकृत पद्य के बहुत बाद में , जब राष्ट्रीय जीवन में सांस्कृतिक एकता की भावना का उदय हुआ , संपन्न हो सका । गद्य साहित्य के बाद में आविर्भूत होने के अनेक कारण हैं । यह एक बड़े रचर्य का विषय है कि मनुष्य जीवनभर दैनिक कार्य - कलाप में गद्य का हार करता है किंतु विश्व साहित्य में गद्य की अपेक्षा पद्य का प्रादुर्भाव पहले ह । इसका कारण कदाचित मानव के हृदय में भावनात्मक पक्ष का प्राबल्य के अतिरिक्त मानव में सौंदर्य - प्रेम की प्रवृत्ति सनातन एवं चिरंतन है । यह पसम्मत तथ्य है कि भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति जितनी पद्य में संभव । गद्य में नहीं । मानव की संगीत के प्रति नैसर्गिक रुचि ने भी पद्य के में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है ।

प्रारंभ में मानव के भाव सरल और तरल ज्यवहार है । इसके अतिरिक्त एक सर्वसम्मत तथ्य है उतनी गद्य म प्रोत्साहन में महत्त्व होते हैं , उनमें किसी प्रकार की कोई जटिलता नहीं होती । परिणामतः । अभिव्यक्ति का माध्यम पद्य आसानी से हो सकता है । सभ्यता और विना उत्तरोत्तर विकास के साथ - साथ मानव के विचारों में गहनता , जटिलता और प्रकार की समस्याओं का समावेश स्वतः होने लगता है । इस प्रकार की ना समस्या - संकुल जटिल विचारधारा के वहन करने की क्षमता पद्य में न होकर गद्य में ही संभव है । मुद्रण - कला के अभाव में वक्तव्य वस्तु को स्मृति - पटल पर सदा बनाये रखने में पद्य जितना सहायक हो सकता है , उतना गद्य नहीं ।

आधुनिक युग के सुव्यवस्थित गद्य से पूर्व हिंदी की विभिन्न भाषाओं में राजस्थानी तथा ब्रज में गद्य के जो टूटे - फूटे उदाहरण मिलते हैं , उनका उल्लेख करते हुए हम खड़ी बोली गद्य के विकास की परंपरा का उल्लेख करेंगे । राजस्थानी एवं ब्रजभाषा गद्य का ऐतिहासिक मूल्य भले ही हों , किंतु उसका साहित्यिक मूल्य नगण्य है ।

हिंदी साहित्य में गद्य के द्रुतगति से आविर्भूत एवं विकसित न होने के भी अनेक कारण हैं । हिंदी भाषा भाषी प्रदेश में उस समय साहित्यिक भाषा का कोई सर्वस्वीकृत रूप नहीं था । भिन्न - भिन्न प्रदेशों में भिन्न - भिन्न साहित्यिक भाषाओं - राजस्थानी , बुंदेलखंडी , ब्रज , अवधी आदि का प्रयोग हो रहा था । यदि उस समय साहित्य क्षेत्र की कोई एक सर्वसम्मत भाषा होती तो संभव था कि गद्य का भी कोई निश्चित रूप हो सकता । तत्कालीन हिंदी साहित्य की धार्मिक प्रवृत्ति और श्रृंगारप्रियता भी गद्य के विलंब से आविर्भूत होने के कारण है । कहने का तात्पर्य यह है कि गद्य के विकास के लिए जिन परिस्थितियों की अपेक्षा होती है वे हिंदी के प्रथम तीन कालों में नहीं थी । संयोगवश हिंदी साहित्य क आधुनिक काल में गद्य के आविर्भाव और उसके क्षिप्र प्रचार के लिए जिन बाता की आवश्यकता थी वे सब विद्यमान थीं ।

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