Wednesday 22 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टादश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, एवं सार / The significance, meaning and essence of the Ashtadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टादश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, एवं सार

The significance, meaning and essence of the Ashtadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

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इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश  , त्रयोदश,  चतुर्दश 
पञ्चदश , षोडष , सप्तदश अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके अठारहवें अध्यायका माहात्म्य / The greatness of the eighteenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीपार्वतीजीने कहा -
भगवन् ! आपने सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया । अब अठारहवें अध्यायके माहात्म्यका वर्णन कीजिये ।

श्रीमहादेवजीने कहा - गिरिनन्दिनि ! चिन्मय आनन्दकी धारा बहानेवाले अठारहवें अध्यायके पावन माहात्म्यको जो वेदसे भी उत्तम है , श्रवण करो । यह सम्पूर्ण शास्त्रोंका सर्वस्व , कानोंमें पड़ा हुआ रसायनके समान तथा संसारके यातना - जालको छिन्न - भिन्न करनेवाला है । सिद्ध पुरुषोंके लिये यह परम रहस्यकी वस्तु है । इसमें अविद्याका नाश करनेकी पूर्ण क्षमता है । यह भगवान् विष्णुकी चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परमपद है । इतना ही नहीं , यह विवेकमयी लताका मूल , काम - क्रोध और मदको नष्ट करनेवाला , इन्द्र आदि देवताओंके चित्तका विश्राम - मन्दिर तथा सनक सनन्दन आदि महायोगियोंका मनोरञ्जन करनेवाला है । इसके पाठमात्र से यमदूतोंकी गर्जना बंद हो जाती है । पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है , जो संतप्त मानवोंके त्रिविध तापको हरनेवाला और बड़े - बड़े पातकोंका नाश करनेवाला हो । अठारहवें अध्यायका लोकोत्तर माहात्म्य है । इसके सम्बन्धमें जो पवित्र उपाख्यान है , उसे भक्तिपूर्वक सुनो । उसके श्रवणमात्रसे जीव समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

मेरुगिरिके शिखरपर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है । उसे पूर्वकालमें विश्वकर्माने बनाया था । उस पुरीमें देवताओंद्वारा सेवित इन्द्र शचीके साथ निवास करते थे । एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे , इतनेहीमें उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णुके दूतोंसे सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है । इन्द्र उस नवागत पुरुषके तेजसे तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासनसे मण्डपमें गिर पड़े । तब इन्द्रके सेवकोंने देवलोकके साम्राज्यका मुकुट इस नूतन इन्द्रके मस्तकपर रख दिया । फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवाङ्गनाओंके साथ सब देवता उनकी आरती उतारने लगे । ऋषियोंने वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये । गन्धर्वोका ललित स्वरमें मङ्गलमय गान होने लगा ।

इस प्रकार इस नवीन इन्द्रको सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकारके उत्सवोंसे सेवित देखकर पुराने इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ । वे सोचने लगे ' इसने तो मार्गमें न कभी पौंसले बनवाये हैं , न पोखरे खुदवाये हैं और न पथिकोंको विश्राम देनेवाले बड़े - बड़े वृक्ष ही लगवाये हैं । अकाल पड़नेपर अन्नदानके द्वारा इसने प्राणियोंका सत्कार भी नहीं किया है । इसके द्वारा तीर्थोंमें सत्र और गाँवोंमें यज्ञका अनुष्ठान भी नहीं हुआ है । फिर इसने यहाँ भाग्यकी दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं ? ' इस चिन्तासे व्याकुल होकर इन्द्र भगवान् विष्णुसे पूछनेके लिये प्रेमपूर्वक क्षीरसागरके तटपर गये और वहाँ अकस्मात् अपने साम्राज्यसे भ्रष्ट होनेका दुःख निवेदन करते हुए बोले - ' लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकालमें आपकी प्रसन्नताके लिये सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया था ।

उसीके पुण्यसे मुझे इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई थी ; किंतु इस समय स्वर्गमें कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है । उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया है और न यज्ञोंका । फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासनपर कैसे अधिकार जमाया है ?

श्रीभगवान् बोले -
इन्द्र ! वह गीताके अठारहवें अध्यायमेंसे पाँच प्रलोकोंका प्रतिदिन पाट करता है । उसीके पुण्यसे उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्यको प्राप्त कर लिया है । गीताके अठारहवें अध्यायका पाठ सब पुण्योंका शिरोमणि है । उसीका आश्रय लेकर तुम भी अपने पदपर स्थिर हो सकते हो ।

भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपायको जानकर इन्द्र ब्राह्मणका वेष बनाये गोदावरीके तटपर गये । वहाँ उन्होंने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा , जहाँ कालका भी मर्दन करनेवाले भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं । वहीं गोदावरी - तटपर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे , जो बड़े ही दयालु और वेदोंके पारङ्गत विद्वान् थे । वे अपने मनको वशमें करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्यायका स्वाध्याय किया करते थे । उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन्हींसे अठारहवें अध्यायको पढ़ा । फिर उसीके पुण्यसे उन्होंने श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया ।

इन्द्र आदि देवताओंका पद बहुत ही छोटा है , यह जानकर वे परम हर्षके साथ उत्तम वैकुण्ठधामको गये । अतः यह अध्याय मुनियों के लिये श्रेष्ठ परम तत्त्व है । पार्वती ! अठारहवें अध्यायके इस दिव्य माहात्म्यका वर्णन समाप्त हुआ । इसके श्रवणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण गीताका पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया । महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है , वह समस्त यज्ञोंका फल पाकर अन्तमें श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे , जो बड़े ही दयालु और वेदोंके पारङ्गत विद्वान् थे । वे अपने मनको वशमें करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्यायका स्वाध्याय किया करते थे । उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन्हींसे अठारहवें अध्यायको पढ़ा । फिर उसीके पुण्यसे उन्होंने श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया । इन्द्र आदि देवताओंका पद बहुत ही छोटा है , यह जानकर वे परम हर्षके साथ उत्तम वैकुण्ठधामको गये ।

अतः यह अध्याय मुनियों के लिये श्रेष्ठ परम तत्त्व है । पार्वती ! अठारहवें अध्यायके इस दिव्य माहात्म्यका वर्णन समाप्त हुआ । इसके श्रवणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण गीताका पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया । महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है , वह समस्त यज्ञोंका फल पाकर अन्तमें श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।


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